कहानी एक अहंकारी ऋषि की
एक राज्य में एक ऋषि रहते थे। जो बहुत ही ज्ञानी थे उनको वेदो और शास्त्रों का बहुत ही ज्ञान था, उस राज्य का राजा और प्रजा उनको बहुत ही मानते थे। कोई भी समस्या हो वह ऋषि के पास पहुंच जाते थे तथा उनके मार्ग दर्शन द्वारा हर काम करते थे। इस बात का ऋषि को बहुत अभिमान (घमंड) था एक दिन ऋषि पूजा करने के लिए दूसरे गावं जा रहे थे रस्ते में उन्हें एक घाना जंगल मिला और ऋषि रास्ता भटक गए ऋषि को समझ नहीं आ रहा था की वह इस घने जंगल से कैसे बहार निकले। तभी ऋषि को एक छोटी सी कन्या दिखाई दी, ऋषि पास जाके कन्या से पूछा बालिका तुम इस जंगल में क्या कर रही हो कन्या ने बोला मेरा घर यही पास में है और में यहां लकड़ियाँ चुनने आई हूँ। ऋषि ने फिर कन्या से बोला की मै इस जंगल में भटक गया हूँ क्या तुम मुझे इस जंगल से बहार निकलने का रास्ता बता सकती हो।
ऋषि - क्या तुम मुझे नहीं जानती?
कन्या - जी हां, देखने में आप मनुष्या ही लग रहे है।
ऋषि - यह क्या उपहास है।
कन्या - आप ने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया।
ऋषि - मैं इस राज्य का सबसे ज्ञानी संत हूँ मुझे ब्रम्हाण्ड का सम्पूर्ण ज्ञान है।
कन्या - सबसे बड़ा ज्ञानी तो ईश्वर है जिसे तीनो लोक का ज्ञान है।
ऋषि - पर उस ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग मैं दिखाता हूँ। देखो बेटी मैं राहगीर हूँ और भटक गया हूँ और मुझे मंजिल तक पहुँचना है।
कन्या - मानव जीवन भी राहगीर है जिसे संसार रूपी समुन्द्र को पार करके अपनी मंजिल (मोक्ष) पर पहुंचना है।
ऋषि - तुम जो बोल रही हो ठीक है मैं पास वाले गांव में मेहमान बन कर जा रहा हूँ।
कन्या - जीवन में सिर्फ दो ही मेहमान है पहला यौवन और धन जिनको जाने में समय नहीं लगता। आपने मुझे अभी तक अपना परिचय नहीं दिया।
ऋषि - मैं एक परोपकारी संत हूँ।
कन्या - परोपकारी तो फलदार वृक्ष और नदी है जो बिना किसी भेदभाव के सामान रूप से परोपकार करते है।
ऋषि ने सोचा यह कन्या तो मेरी हर बात को अपनी तर्क शक्ति से पूरी तरह ही बदल देती है अब मैं ऐसा कुछ बोलता हूँ जिसका यह पलट कर जवाब न दे सके।
ऋषि - मैं शुन्य हूँ।
कन्या - शुन्य तो मानव शरीर है जब तक इसमे आत्मा है तब तक इसका मोल है बिना आत्मा के यह शरीर शुन्य है।
ऋषि - (झलाते हुए बोला) मैं अज्ञानी हूँ।
उस कन्या के रूप को छोड माँ सरस्वती अपना रूप धारण करती है, ऋषि माँ के अवतार को देख कर नद-मस्तक हो जाता है। और माँ को प्रणाम करता है तथा उनकी स्तुति करता है।
माँ - हे! ऋषिवर आप एक ज्ञानी पुरुष हो पर आपको अपनी शिक्षा का अहंकार हो गया था। आपको इस बात का घमंड आ गया था की इस संसार में आपके इतना ज्ञानी कोई नहीं है। आपको शिक्षा के द्वारा समाज में जो प्रतिष्ठा, आदर और सम्मान मिल रहा था उसे अपने अपनी उपलब्धि मान ली। लेकिन उपलब्धि उस ज्ञान के कारण थी जो ईश्वर की कृपा से हुई थी लेकिन आपको इसका बहुत अहंकार हो गया। ईश्वर ने जो ज्ञान दिया, वह दूसरो की भलाई परोपकार और मानव कल्याण में लगाना चाहिए आप पे ईश्वर की कृपा है इसे अहंकार करके गवाना नहीं चाहिए।
ऋषि - माँ, मुझे क्षमा कर दीजिये। मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया है और मैं अपना सारा जीवन मानव कल्याण में लगाऊंगा तथा अहंकार को अपने जीवन में प्रवेश नहीं होने दूंगा।
माँ ऋषि को आशीर्वाद देके अदृश्य हो गयी।
निष्कर्ष :
इस कहानी से हमे यह शिक्षा मिलती है की हमे इस जीवन में जो भी मिला है वह ईश्वर की कृपा से ही मिला है हमे इस बात का अहंकार नहीं होना चाहिए की मेरे पास कोई भी चीज़ दुसरो से ज्यादा है और दुसरो के पास कम है इस बात का घमंड नहीं होना चाहिए हमे जो भी मिला है उसमे से थोड़ा लोगो की भलाई, परोपकार और मानव सेवा में लगा देना चाहिए इस से हमारे मन को शांति मिलेगी तथा ईश्वर की कृपा बनी रहेगी।
ऋषि - पर उस ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग मैं दिखाता हूँ। देखो बेटी मैं राहगीर हूँ और भटक गया हूँ और मुझे मंजिल तक पहुँचना है।
कन्या - मानव जीवन भी राहगीर है जिसे संसार रूपी समुन्द्र को पार करके अपनी मंजिल (मोक्ष) पर पहुंचना है।
ऋषि - तुम जो बोल रही हो ठीक है मैं पास वाले गांव में मेहमान बन कर जा रहा हूँ।
कन्या - जीवन में सिर्फ दो ही मेहमान है पहला यौवन और धन जिनको जाने में समय नहीं लगता। आपने मुझे अभी तक अपना परिचय नहीं दिया।
ऋषि - मैं एक परोपकारी संत हूँ।
कन्या - परोपकारी तो फलदार वृक्ष और नदी है जो बिना किसी भेदभाव के सामान रूप से परोपकार करते है।
ऋषि ने सोचा यह कन्या तो मेरी हर बात को अपनी तर्क शक्ति से पूरी तरह ही बदल देती है अब मैं ऐसा कुछ बोलता हूँ जिसका यह पलट कर जवाब न दे सके।
ऋषि - मैं शुन्य हूँ।
कन्या - शुन्य तो मानव शरीर है जब तक इसमे आत्मा है तब तक इसका मोल है बिना आत्मा के यह शरीर शुन्य है।
ऋषि - (झलाते हुए बोला) मैं अज्ञानी हूँ।
उस कन्या के रूप को छोड माँ सरस्वती अपना रूप धारण करती है, ऋषि माँ के अवतार को देख कर नद-मस्तक हो जाता है। और माँ को प्रणाम करता है तथा उनकी स्तुति करता है।
माँ - हे! ऋषिवर आप एक ज्ञानी पुरुष हो पर आपको अपनी शिक्षा का अहंकार हो गया था। आपको इस बात का घमंड आ गया था की इस संसार में आपके इतना ज्ञानी कोई नहीं है। आपको शिक्षा के द्वारा समाज में जो प्रतिष्ठा, आदर और सम्मान मिल रहा था उसे अपने अपनी उपलब्धि मान ली। लेकिन उपलब्धि उस ज्ञान के कारण थी जो ईश्वर की कृपा से हुई थी लेकिन आपको इसका बहुत अहंकार हो गया। ईश्वर ने जो ज्ञान दिया, वह दूसरो की भलाई परोपकार और मानव कल्याण में लगाना चाहिए आप पे ईश्वर की कृपा है इसे अहंकार करके गवाना नहीं चाहिए।
ऋषि - माँ, मुझे क्षमा कर दीजिये। मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया है और मैं अपना सारा जीवन मानव कल्याण में लगाऊंगा तथा अहंकार को अपने जीवन में प्रवेश नहीं होने दूंगा।
माँ ऋषि को आशीर्वाद देके अदृश्य हो गयी।
निष्कर्ष :
इस कहानी से हमे यह शिक्षा मिलती है की हमे इस जीवन में जो भी मिला है वह ईश्वर की कृपा से ही मिला है हमे इस बात का अहंकार नहीं होना चाहिए की मेरे पास कोई भी चीज़ दुसरो से ज्यादा है और दुसरो के पास कम है इस बात का घमंड नहीं होना चाहिए हमे जो भी मिला है उसमे से थोड़ा लोगो की भलाई, परोपकार और मानव सेवा में लगा देना चाहिए इस से हमारे मन को शांति मिलेगी तथा ईश्वर की कृपा बनी रहेगी।
JOY'N'SUNNY
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